Sunday, September 18, 2011

इस अजनबी दुनिया में,
अकेला एक ख्वाब हूँ,
सवालो से खफा,
छोटा सा एक जवाब हूँ,
जो न समझ सके,
उनके लिए '' कौन'',
जो समझ चुके,
उनके लिए एक खुली किताब हूँ ......


By K.M. SHAHI,

Saturday, January 1, 2011

आज एक जनवरी की सुबह
मैं निकल साइकिल लेकर
सुबह सुबह घूमने
स्कूल के बच्चो को स्कूल जाते देख कर
अचानक याद की आज

बच्चो को छुटी नहीं
काश आज बच्चो को

छुटी होती नव वर्ष की
सोचते सोचते मैं साइकिल लेकर निकला आगे

गोरेवाडा का जंगल देखा मन प्रफुलित हुआ
पर तभी मन में विचार आया
यह जंगल कितनी दिन बच पायेगा
इस हरे बहरे जंगल को काट कर
हम इन्सान ऊचे ऊचे मकानों का जंगल बनादेगे
यह शांति और वातावरण की पवित्रता को सदा के लिए
हम ख़तम कर देंगें
मन में यही विचार था की
काश यह जंगल जंगल ही बना रहे
पंचिओं की चाह्चत युही बनी रहें
काश इस हो सकता ......

Wednesday, April 7, 2010

पडोसी ही पडोसी कें काम आते है

अखबार में आंख गडाके
मैंने कहा क्या चाय मिलगी
आवाज़ आई
नहीं
दूध ख़त्म हो गया है
बिना दूध चाय ऐसी
जिसे बिना चीनी कोई मिठाई
मैंने कहा पड़ोस से लेलो
श्रीमतीजी ने नाराज़गी से बोला
कोई शर्म है या नहीं
अब पड़ोस से दूध मांगना पड़ेगा एक चाय के लिए
आज बिना चाय के अख़बार पड़ लो
मैंने सोचा पड़ोस से मांगने में क्या शर्म
कोनसी नाक कट जाएगी
पर कोंन करे बीबी से बहस
तब ही दरवाजे की घंटी बजी
पड़ोसन बोली भाईसाहब कुछ चीनी मिलेगी
ख़तम होगई है
मैं मन ही मन मुस्कराया
शायद पड़ोसन को पता चला
वह बोली अगर नहीं तो कोई बात नहीं
मैंने अपनी मुस्कान को संभाला
और श्रीमतीजी को बुलाया
श्रीमती से पड़ोसन बोली
मैंने श्रीमती की आँखों में देखा
और इशारे से बोला दिया
श्रीमती ने न चाहते भी
पड़ोसन से दूध मांग लिया
पड़ोसन ख़ुशी ख़ुशी से कहा
पडोसी पडोसी के काम नहीं आया
तो ऐसे पडोसी का क्या फायद
जी हाँ पडोसी ही पडोसी कें काम आते है

Tuesday, March 30, 2010

ये टूटा
कांच का गिलास
ऐसा लगा
गिलास नहीं कोई अरमान टूटा
मेमसाहेब चिलायी बाई पर
और बाई रो पड़ी
मेमसाहेब पर कोई असर नहीं
गिलास महंगा था
क्यों की विदेशी था
बाई रो रो कर बेहाल थी
रोते रोते बाई बोली
मेमसाहेब कल भी गिलास
टूटा था
पर फर्क इतना है की
कल आपसे टूटा था
और आज मेरे से
कल और आज में
इतना क्या बदला
शब्द कानो में चुभे
कल और आज में
क्या बदला
कुछ भी तो नहीं
यह क्या मेरा अहम् था
या मेरा गिलास
मुछे कुछ समझ ना आया
यह टूटा
कांच का गिलास

Thursday, March 25, 2010

मुझे एसा क्यों लगा की तुम मुझ से नाराज़ हो

मैंने अपने आप से पुछा की क्यों मुझे ऐसा लगा

जवाब कुछ ना मिला पर लगा की तुम मुझ से नाराज़ हो

नाराज़गी बताये भी नहीं बात करते भी नहीं

और कहते हो की मुझ से नाराज़ भी नहीं

कोई गम नहीं की तुम नाराज़ हो

कोई शक्वा ना करेंगे तुम से

ऐ दोस्त दोस्ती करी है

यह वादा रहा दोस्ती निभाएगें

एक बार आवाज़ तो देना,

हमें हमेशा अपने पास ही पायोंगे

Sunday, March 21, 2010

नज़र बाज़ ने नज़र सनम को

नज़र ने नज़र को मिलते देखा

नज़र पडी जब नज़र के ऊपर

नज़र ने नज़र को गिरते देखा

मौसम सुहाना था

पंछियो की चहक से
फूलों की महक से
हवाओं की सायं सायं से
मौसम सुहाना था
कान्हा के जंगल में
मोर ने अपने पंख बिखरे
mornee को रिझाने
मोर चला मोरनी के पीछ पीछ
अपने पंख उठाये
हवाओं की सायं सायं से
मौसम सुहाना था