ये टूटा
कांच का गिलास
ऐसा लगा
गिलास नहीं कोई अरमान टूटा
मेमसाहेब चिलायी बाई पर
और बाई रो पड़ी
मेमसाहेब पर कोई असर नहीं
गिलास महंगा था
क्यों की विदेशी था
बाई रो रो कर बेहाल थी
रोते रोते बाई बोली
मेमसाहेब कल भी गिलास
टूटा था
पर फर्क इतना है की
कल आपसे टूटा था
और आज मेरे से
कल और आज में
इतना क्या बदला
शब्द कानो में चुभे
कल और आज में
क्या बदला
कुछ भी तो नहीं
यह क्या मेरा अहम् था
या मेरा गिलास
मुछे कुछ समझ ना आया
यह टूटा
कांच का गिलास
Tuesday, March 30, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDelete